GAYATRI (गायत्री)

गायत्री

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

दैनिक गायत्री उपासनादैनिक उपासना की सरल किन्तु महान् प्रक्रिया गायत्री का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वसुलभ ध्यान उच्चस्तरीय साधना और उसकी सिद्धि


गायत्री क्या है? गायत्री ब्रह्म चेतना है । समस्त ब्रह्माण्ड के अन्तराल में वही संव्याप्त है ।। जड़ जगत् का समस्त संचालन उसी की प्रेरणा एवं व्यवस्था के अन्तर्गत हो रहा है ।।

गायत्री मंत्र का विज्ञानमन्त्रोच्चारण नाड़ी तन्तु के कुछ विशेष ग्रन्थियों को गुदगुदाते हैं। उनमें स्फुरण होने से एक वैदिक छन्द का क्रमबद्ध यौगिक सङ्गीत प्रवाह ईथर तत्त्व में फैलता और वापस आते- आते एक स्वजातीय तत्त्वों की सेना साथ ले आता है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में बड़ी सहायक होती है ।


Yagya in Gayatri SadhanaGayatri has been called righteous wisdom and Yagya as righteous action. Gayatri and Yagya form an inseparable pair. One is said to be the mother and the other, the father of 'Bhartiya Dharma'.


ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।‎

अर्थात् - उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी,पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। उसके तीन चरण हैं। उद्गम एक होते हुए भी उसके साथ तीन दिशाधाराएँ जुड़ती हैं:-

(१) प्रथम चरण - सविता के भर्ग-तेजस् का वरण अर्थात् जीवन में ऊर्जा एवं आभा का बाहुल्य। अवांछनीयताओं से अंत:ऊर्जा का टकराव। परिष्कृत प्रतिभा एवं शौर्य-साहस इसी का नाम है। गायत्री के नैष्ठिक साधक में यह प्रखर प्रतिभा इस स्तर की होनी चाहिए कि अनीति के आगे न सिर झुकाए और न झुककर कायरता के दबाव में कोई समझौता करे।

(२) दूसरा चरण- देवत्व का वरण अर्थात् शालीनता को अपनाते हुए उदारचेता बने रहना; लेने की अपेक्षा देने की प्रवृत्ति का परिपोषण करना; उस स्तर के व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव-गरिमा की अंतराल में अवधारणा करना। यही है ‘देवस्य धीमहि।’

(३) तीसरा सोपान है- धियो यो न: प्रचोदयात्’ मात्र अपनी ही नहीं, अपने समूह, समाज व संसार में सद्बुद्धि की प्रेरणा उभारना- मेधा, प्रज्ञा, दूरदर्शी विवेकशीलता, नीर-क्षीर विवेक में निरत बुद्धिमत्ता। . तत्त्व ज्ञान मान्यताओं एवं भावनाओं को प्रभावित करता है। इन्हीं का मोटा स्वरूप चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार है। गायत्री का तत्त्व ज्ञान इस स्तर की उत्कृष्टता अपनाने के लिए सद्विषयक विश्वासों को अपनाने के लिए प्रेरणा देता है।